Saturday, July 29, 2023

Tera naam isqe


समीक्षा 

उपन्यास - तेरा नाम इश्क़
उपन्यासकार -अजय सिंह राणा
प्रकाशक - सृष्टि प्रकाशन चंडीगढ़

इश्क के रेशमी फाहों को
शब्दों में बयां करना मुश्किल है,
ये तो अहसासों का समंदर है
तन्हाई में डूबना और उतराना है।

उपन्यास के समर्पण के साथ ही लिखी दो लाइनों "रूह में उतर कर तो देखिए, इन जिस्मों का क्या, इक दिन खाक हो जाएगा।" के आगाज से ही "तेरा नाम इश्क़" की गहराई का अंदाजे बयां हो जाता है।

नापाक जिस्मों से होकर पाक रूह में समा जाता है इश्क़। कब होता है, किससे से होता है और क्यों होता है इश्क़? किसी को कुछ पता नहीं पर जब भी होता है झूर के होता है कि तन-मन की सुध-बुध भुला देता है। कभी हँसा देता है कभी रुला देता है, अद्भुत है इसका पैगाम - मेरा नाम इश्क़ या तेरा नाम इश्क़।

"उसने कहा था" के इश्क़ के कोमल अहसासों के बाद "तेरा नाम इश्क़" ने फिर से डुबा दिया अहसासों के समंदर में कि गुजरने लगे हम भी भूले-बिसरे इश्क़ के बवंडर में।

अजय सिंह राणा मानवीय संवेदनाओं और मनोविज्ञान के कुशल चितेरे हैं। मानवीय मनोविज्ञान की गहराइयों में उतर कर लिखी गई रचना तक पहुँचने के लिए उसी गहराई तक उतरना पड़ता है। पुस्तक में छिपे मर्म को पकड़ने के लिए डूबकर पढ़ना पड़ता है।

मानव जीवन का सबसे गूढ़ तत्व है प्रेम। ढाई अक्षर के प्रेम या इश्क की गहनता जानना उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल है ढाई-तीन इंच के हृदय की गहराई नापना।

हिंदी के प्रेम में भी ढाई अक्षर और उर्दू के इश्क़ में भी ढाई अक्षर क्योंकि ईश्वर ने नहीं बाँटा है इंसानों को।  कैद नहीं हो सकता है प्रेम/इश्क़ सीमाओं के दायरे में।
धर्मों के दायरे नहीं रोक पाए स्नेहा और साहिल उर्फ वसीम तथा अरमान और सारिका के इश्क़ को। जातियों, मजहबों के बीच दीवारें खींची जा सकती हैं किंतु इश्क़ के फाहों को जातीय व मजहबी दायरों में कैद करना नामुमकिन है।

इश्क़, इबादत और इंतजार को अपने शब्दों में गूँथने से पहले राणा जी ने कड़ी मेहनत की है। पात्रों के बारे में गहन अनुसंधान, खोजबीन और जाँच पड़ताल के बाद सृजन की लंबी वेदना से गुजरे हैं, तब कहीं नायाब "तेरा नाम इश्क़" का जन्म हुआ है। कथ्य नया नहीं है पर उसको भाषा और शिल्प में इस खूबसूरती से पिरोया है कि एक-एक रेशा यानी वाक्यांश अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हो रहा है।

स्नेहा व साहिल के इश्क़, इबादत और इंतजार की यात्रा में मीरपुर गाँव के आतंकियों के खौफनाक मंजर के बाद तबाह खंडहरों में पसरी मौत का रुदन है कि चौकीदार कहता है, "ये कोई सैर सपाटे की जगह नहीं है, बस एक कब्रिस्तान है। सैकड़ों लाशें गिरी थीं यहाँ...  गैर मजहबी लोगों की।"

श्रीनगर व पूरे कश्मीर की खूबसूरती पर आतंकी ग्रहण से जन्मी नफरतों के मानसिक बारूद का ढेर है कि ड्राइवर भी पूछता है कि "आप दोनों इंडिया से आए हो।" पाकिस्तान जिंदाबाद, गो बैक इंडिया के स्लोगनों ने युवाओं के हाथों में रोजगार की जगह मजहबी पत्थर पकड़ा दिए हैं। नफरतों के मंजर की इतनी गहरी घुसपैठ करा दी है कि अबोध बालमन भी स्कूल बंद होने का कारण इंडिया वालों को ही मानता है।
इश्क़ की दास्तान के साथ-साथ उपन्यास ने ज्वलंत मुद्दों आतंकवाद और मजहबी दंगों के पीछे छिपी स्वार्थों की राजनीति का पुरजोर विरोध किया है।

साहिल की दोस्ती को जिलाए रखने के लिए वसीम ने चंडीगढ़ में स्नेहा को अपना परिचय साहिल के रूप में ही देता है। जस्सी भी अपनी दोस्ती के कारण साहिल के बारे में पता चलते ही अपनी शादी से एक दिन पहले आशीष को बताने के लिए मुंबई जाता है।

काश! इंसानी दिलों में ये दोस्तियां बन जातीं तो यूँ दुश्मनी की दरारें समाज को नहीं बाँट पातीं।

वो जवानी ही क्या जिसमें इश्क़ की ज्वाला न धधके। बहुत खूबसूरती से राणा जी ने दिलों की इस मीठी-मीठी हूक को अपने शब्दों में पिरोया है। सच है इश्क़ इंसानों के बीच की दूरियां मिटाता है। सच्चा इश्क़ जिस्मों से परे जाकर रूह में समा जाता है। इस प्लेटॉनिक इश्क़ में इश्क़ इबादत बन जाता है जहाँ मिलन के माधुर्य का सुख है वहीं इंतजार की वेदना है।
स्नेहा, जस्सी, साहिल, आलिया और आशीष के अपने-अपने एकतरफा प्यार की वेदना को उपन्यास में बखूबी दिखाया गया है। अपनी तन्हाइयों में अपने ही वजूद के साथ वार्तालाप कराना बहुत अच्छा प्रयोग है।
"स्नेहा उस घुड़सवार को हैरानी से देख रही थी। कौन हो तुम?"
"तुम्हारे दिल में ही तो रहता हूँ।"
"मैं तो सदियों से ही हूँ...  तुम सब के दिलों में। मैं वह भी हूँ जिसकी तुम्हें तलाश है और जो तुम्हारे जहन में है।"

आजकल जहाँ अनेक एन जी ओ केवल कागजों पर ही चल रहे हैं वहीं जीत सिंह जैसे लोग नफरतों के दलदल में फँसे लोगों की मदद के लिए यथार्थ के धरातल पर खामोशी से काम कर रहे हैं।

सेना के बेस हॉस्पिटल में घायल जवान अपना फोटो खींचने के लिए मना करता है, "प्लीज तस्वीर मत लीजिए। घरवाले बेवजह परेशान होंगे।"
"मत खींचो तस्वीर...  यदि उन लोगों को पता चल गया तो वे मेरे घरवालों को मार डालेंगे।" 
यहाँ पर भी मीडिया की संवेदनहीनता बहुत दुखद है।

आतंक किसी समस्या का समाधान नहीं है। इसमें आम आदमी दोहरी मार खा रहा है।

आशीष का स्नेहा के प्रति अपने एकतरफा प्यार को तिलांजली देकर, दोस्ती में किए गए वादे अनुसार स्नेहा को उसके प्रेम साहिल उर्फ वसीम से मिलवाना उपन्यास का सबसे प्रबल पक्ष है क्योंकि सच्चा इश्क़ जिस्मानी न होकर रूह की इबादत है। 

उपन्यास में कथानकों का प्रवाह बहुत सुगठित है। कहीं भी ऐसा नहीं लगता है कि उसे जबरदस्ती लिखा गया है। भाषा सहज, सरल और प्रभावशाली है। पूरे उपन्यास में इश्क़ में मिलन की संभावित असफलता को फिल्मी गाने, "लग जा गले...,  कि इस जनम में मुलाकात हो न हो।" के द्वारा बखूबी वर्णित किया गया है।

सृष्टि प्रकाशन ने बढ़िया मुद्रण किया है। उनको भी साधुवाद और अपेक्षा कि पाठकों को अच्छा साहित्य उपलब्ध कराने में वे अपनी व्यावसायिकता को आड़े नहीं आने देंगे।

भ्रातृवत अनुज अजय सिंह राणा को इश्क़, इबादत और इंतजार के बारीक मनोविज्ञान और सामाजिक विघटन के दर्द को अपने काव्यात्मक गद्य में "तेरा नाम इश्क़" के रूप में पाठकों के सामने लाने के लिए बहुत बहुत साधुवाद।

अंत में यही कहूँगा कि
इंसानों में इश्क़ की इबादत तो पनपने दो,
नफरतों के मंजर अपने-आप सिमट जाएंगे।

मधुर कुलश्रेष्ठ
नीड़, गली नं 1
आदर्श कॉलोनी, गुना
पिन 473001
मोबाइल 9329236094

Friday, July 28, 2023

Brahmputra se sangpo

समीक्षा



पुस्तक   - ब्रह्मपुत्र से सांगपो -एक सफ़रनामा
लेखक   - दयाराम वर्मा
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन जयपुर

यात्रा महज किसी स्थान की कोलतार या मिट्टी भरी सड़कों पर दौड़ती हुई देह नहीं होती है बल्कि गुजरती है देह जिन-जिन स्थानों व रास्तों से, वहाँ की आबोहवा, वहाँ का सौंदर्य, वहाँ की संस्कृति, वहाँ का रहन-सहन, वहाँ का इतिहास टकराता है जिस्म से तो फलित होती हैं सैकड़ों परिकल्पनाएं।
आकार लेते हैं विभिन्न रिश्ते।
अनुभूति होती है तरह-तरह के लौकिक, अलौकिक और नैसर्गिक अहसासों की।
जिनमें से कुछ जिस्म से होकर रूह तक दस्तक देते हैं। कुछ भुला दिए जाते हैं समय की गर्त में।
यात्रा के दौरान ध्वनित होती अनुगूँज स्मृतियाँ बन चिर स्थान बना लेती हैं हृदय में, मन में, चिंतन में, तब बन जाती है वह यात्रा एक मधुर सफरनामा।
बहुत खूबसूरती से शब्दों में पिरोया है सुदूर उगते सूरज के प्रदेश अरूणाचल प्रदेश के तुतिंग और गेलिंग के सफर और वायुसेना में पहली पदस्थि की अपनी भूली बिसरी स्मृतियाें को अपने सफरनामा "ब्रह्मपुत्र से सांगपो" में दयाराम वर्मा जी ने।
वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज जी की भूमिका शीर्षक - वृतांत ही नहीं, एक संस्कृति का आख्यान भी, सफरनामा के सार की एक लाइन में व्याख्या कर देता है। "ब्रह्मपुत्र से सांगपो" से गुजरते हुए पाठक न केवल वर्णित स्थानों की सदृश्य मानसिक यात्रा करता रहता है बल्कि वहाँ के समाज और संस्कृति से रूबरू होता चलता है। 
इस सफरनामा को लिखने से पहले दयाराम वर्मा जी ने विभिन्न ग्रंथों से बहुत सारी जानकारियां जुटाई हैं। संदर्भित ग्रंथों की सूची पुस्तक के अंत में परिशिष्ट में दी गई है। जो इस सफरनामा को प्रामाणिक दस्तावेज बनाती है। अरूणाचल की जनजातियों के मानव विज्ञान शोधार्थियों को यह पुस्तक मददगार साबित होगी।
दयाराम वर्मा जी के प्रथम उपन्यास सियांग के उस पार की विषय-वस्तु भी तुतिंग और सियांग ही है। वह उपन्यास अरूणाचल के सौंदर्य के साथ-साथ प्रेम का आख्यान भी है।
सभ्य समाज जिस कारण से आदिवासियों को पिछड़ा और असभ्य समझता है वास्तव में वह जनजातियों का भोलापन, निष्कपटता, निश्छलता और मिलनसारिता है। जिसकी छाप मानव मस्तिष्क में अमिट रहती है। 1988-89 में पदस्थि के दौरान लामांग दीदी, याकेन निजो, कामुत के इन्हीं अपनत्व भरी सुखद स्मृतियाें के वशीभूत होकर आदिवासी क्षेत्रों की कठिनाइयों को दरकिनार करते हुए दयाराम वर्मा सपरिवार तुतिंग के सफर पर निकल पड़े। जिसका कथात्मक रूप में सहज और सरल भाषा में उपन्यास में वर्णन किया गया है।
यह सफरनामा वास्तव में एक निजी यात्रा न होकर मेजबान आदिवासियों लामांग तेदो, कामुत निजो, याकेन निजो और ओलाक की पारंपरिक आदिवासी मेजबानी के माधुर्य से परिपूर्ण है।
इसमें अरुणाचल प्रदेश की संस्कृति, जंगल, पहाड़, झरने और सियांग के सौंदर्य का सूक्ष्म से सूक्ष्म अवलोकन है।
यह यात्रा ईटानगर, दोइमुख, पासीघाट, यंगिस्तान, मेचुका व चीनी सीमा पर आखिरी भारतीय गाँव गेल्लिंग में आए सामयिक परिवर्तनों का तुलनात्मक अध्ययन सदृश्य है।
अरूणाचल की जीवन दायिनी नदी सियांग का अपने उद्गम से लेकर सागर में समाने तक की खोज, विभिन्न नाम आदि का विस्तृत वर्णन अध्याय यार्लुंग सांगपो से ब्रह्मपुत्र : पृष्ठभूमि में किया गया है।
सफरनामा के चौदह अध्याय अपने आप में अन्वेषणात्मक तथ्यों पर आधारित प्रामाणिक दस्तावेज है।
जब यात्रा में देशाटन, तथ्यात्मक खोज के साहित्यिक गतिविधियों का समामेलन होता है तो सुदूर क्षेत्रों में भी सुश्री यालम तातिन, जितेश अग्रवाल, सुश्री पुन्यित नितिक, सुश्री मिसा, डॉ विश्वजीत कुमार, सुश्री इंग परमे जैसे साहित्यिक मित्रों का सुखद सानिध्य प्राप्त हो जाता है। जिससे यात्रा अविस्मरणीय बन जाती है।
दयाराम वर्मा ने इस यात्रा में अरूणाचल प्रदेश के कण कण के सौंदर्य, माधुर्य और खुशबू को आत्मिक रूप से महसूस किया है। एक-एक पल को अंतरात्मा में उतारा है। और इसी कारण से छोटे से छोटे स्थान, छोटी से छोटी घटना व मुलाकात काे ब्रह्मपुत्र से सांगपो में लिपिबद्ध किया है।
वास्तव में यह सफरनामा हमारे जैसे यायावर के लिए टूर डायरी जैसा मार्गदर्शक है। पाठक के मन में अरूणाचल भ्रमण की हूक पैदा करने में सफल है। निश्चय ही यह सफरनामा पाठक जगत में निरंतर अपना सफर जारी रखने में सफल होगा।
हमेशा की तरह बोधि प्रकाशन जयपुर के द्वारा पुस्तक को पवित्र ग्रंथ की तरह आकर्षक और सुरुचिपूर्ण ढंग से मुद्रित किया है। हार्दिक बधाई बोधि प्रकाशन।
ॠषभ वर्मा द्वारा खींचा गया फोटो पुस्तक आवरण के रूप में बहुत आकर्षक है।
अंत में -
कुछ रिश्ते मात्र रिश्ते नहीं होते हैं बल्कि वे लहू बन शरीर में समावेशित रहते हैं। काश ऐसे रिश्तों की प्रगाढ़ता पूरी दुनिया को अपने आगोश में में ले ले।

मधुर कुलश्रेष्ठ
नीड़, गली नं 1
आदर्श कॉलोनी, गुना
पिन 473001
मोबाइल 9329236094

Saturday, November 8, 2014

मंथन

हृदयाघात से अचेत हुए रामनाथ को परिजनों ने सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया। नर्सों ने रामनाथजी की सामाजिक हैसियत और साख के कारण अच्छी तीमारदारी की जिससे उन्हें जल्दी ही होश आ गया। उनके होश में आते ही नर्सें डाॅक्टर को बुला लाईं। झक
सफेद एप्रेन पहने हुए डाॅक्टर को आते देख रामनाथ थर थर कांपने लगे। रामनाथ को घेरे हुए खड़े उनके परिजन समझ ही नहीं पा रहे थे कि अचानक रामनाथ को क्या हो गया। अभी तो होश में आकर सामान्य अवस्था थी अब वे कंपकंपाने क्यों लगे।

वे तेजी से डाॅक्टर के पास गए और रामनाथ का शीघ्र इलाज करने के लिए कहा। डाॅक्टर को और पास आता हुआ देखकर उन्हें लगा कि उनके सामने साक्षात यमदूत चला आ रहा है। वे धीमी आवाज में बोले ‘‘इस डाॅक्टर से मुझे इलाज नहीं कराना है।’’ और वे फिर से बेहोश हो गए।

सभी लोग आश्चर्य-चकित थे कि रामनाथ इन डाॅक्टर साहब से इलाज कराने के नाम पर इतना भयभीत क्यों हो रहे हैं। अचानक से फिर क्यों बेहोश हो गए।

रामनाथ जी के इस अप्रत्याशित व्यवहार से डाॅक्टर नाराज होने लगा। नर्सों एवं परिजनों ने डाॅक्टर साहब को समझा-बुझाकर शांत किया और किसी दूसरे डाॅक्टर से इलाज करने के लिए अनुनय विनय की।
रामनाथ जी की खराब हालत देखकर अस्पताल प्रशासन ने एक युवा हृदयरोग विशेषज्ञ को आपातकालीन ड्यूटी पर बुलाकर रामनाथ के इलाज के लिए भेजा।

जैसे ही रामनाथ ने युवा डाॅक्टर को आते देखा उनकी हालत और ज्यादा खराब होने लगी। उनकी घिग्घी बंध गई। गले से मुश्किल से आवाज निकल रही थी ‘‘मुझे इस अस्पताल में इलाज नहीं कराना है। मुझे घर ले चलो। मैं अपने प्रदेश के इन डाॅक्टरों से इलाज नहीं कराऊँगा। मुझे दिल्ली या और कहीं ले चलो।’’ एक बार फिर से वे अचेत हो गए।

अचेतावस्था में वे बड़बड़ाने लगे ‘‘वो देखो, वो देखो व्यापम मंथन हो रहा है। पास फेल के अमृत और विष कलश निकल रहे हैं। मोहिनी अपने हिसाब से कलशों को रख रही है।’’

थोड़ी देर गहरी अचेतावस्था में वे मौन रहे। अचानक से फिर कहने लगे ‘‘ अमृत और विष कलशों का बंटवारा हो रहा है। ज्ञान की देवी सरस्वती के उपासकों के सामने विष कलश रखे गए हैं। लक्ष्मी उपासकों के चेहरों की चमक से साफ दिख रहा है कि उनके आगे अमृत कलश ही रखे जाएंगे।’’

‘‘सारे देवतागण (अधिकारी और नेता) लक्ष्मीजी की चकाचैंध में मग्न होकर मौन बैठे हैं। उनके नीर क्षीर करने के विवेक का कहीं अता पता नहीं था। वे अपनी आँखों पर पट्टी बांधे बैठकर सागर द्वारा व्यापम मंथन में निकाले जा रहे मनपसंद रत्नों (चुने हुए प्रतियोगियों) पर अपनी मुहर लगाते जा रहे थे।’’

‘‘वो देखो देवता (पात्र उम्मीदवार) अपने अपने कलश (ओ एम आर शीट)  फटाफट भरकर संतोष से दमक रहे हैं। असुर लोगों ने अपने अपने कलश (ओ एम आर शीट) खाली छोड़ दिए हैं। पर वो देखो, सरस्वती उपासकों के कलशों (ओ एम आर शीट) में विष भरा जा रहा है। लक्ष्मी वाहकों के खाली कलशों (ओ एम आर शीट) में अमृत भरा जा रहा है।’’

‘‘वो देखो कुछ असुरों की जगह दूसरे असुर आकर बैठ गए हैं और फटाफट अपना काम निपटा रहे हैं। सारे नियंत्रक चुपचाप बैठे हैं।’’

‘‘वो देखो व्यापमं मंथन पूरा हो गया है। परिणाम सामने आ गए हैं। देवता (पात्र उम्मीदवार) मोहिनी की चमक से छले जाने पर अपनी गर्दन नीचे किए बैठकर अपना आत्ममंथन कर रहे हैं। असफल होने के कारण तलाश रहे हैं। अमृत की जगह विषपान कर समाज की लानत मलानत झेल रहे हैं।

असुर (अपात्र उम्मीदवार) अमृत पान कर खुशी से झूम रहे हैं। शान से अपनी सफलता का जश्न मना रहे हैं। काॅलेजों में प्रवेश ले रहे हैं।’’

‘‘वो देखों उन्हीं में से एक असुर आ रहा है मेरा इलाज करने के लिए। मैं इलाज नहीं कराऊँगा। मुझे कहीं बाहर ले चलो।’’ 

अपनी बात पर किसी का ध्यान न जाते देख रामनाथ ‘‘ मुझे इलाज नहीं कराना है।’’ कहकर अस्पताल से भाग लिए। सारे लोग उनको पकड़ने के लिए पीछे भागने लगे।

Tuesday, October 21, 2014

Happy Diwali

दीपों का मंगल उत्सव
रहे न कहीं अंधियारा
गली मोहल्ले झोपड़पट्टी
चमके चहके जग सारा
धूमधडा़का शोर-शराबे में
छूटे न कोई दुखियारा

शुभ दीपावली!

Thursday, March 13, 2014

प्रभो! हमें भैंसें बना दो!

भगवान चित्रगुप्त, देवर्षि नारद और ब्रह्मा जी के माथे पर चिंता की लकीरें उभर रहीं थीं। वे आपस में गहन मंत्रणा में डूबे हुए थे। उनके सामने आवेदनों का ढेर लगा हुआ था। हर पल आवेदन पर आवेदन आते जा रहे थे। हर आवेदन में एक ही मांग थी ‘प्रभो! हमें भैसें बना दो।’

भगवान चित्रगुप्त, देवर्षि नारद और ब्रह्मा जी बहुत चिंतित हो रहे हैं कि आखिर उनकी सबसे समझदार योनि मनुष्य को क्या हो गया है कि हर मनुष्य आत्मा पृथ्वी लोक पर भैंस बन कर जाना चाहती है।
आधुनिक मशीनों से सज्जित यमलोक में कम्प्यूटर पर बैठी अप्सरा ने आए हुए आवेदनों का विश्लेषण कर चित्रगुप्त जी को चैंकाया, ‘‘सर ये सारे आवेदन एक खास प्रदेश से आई हुई आत्माओं के हैं, विशेषकर एक विशेष नगर से आई हुई आत्माओं के।’’
कम्प्यूटर गणिका की बात सुनकर चित्रगुप्त जी परेषान हो उठे कि आखिर खास प्रदेश की जनता को क्या हो गया है जो सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनि को त्यागकर भैंस बनना चाहती है। जबकि हर आत्मा मनुष्य योनि में जाने को लालायित रहती है क्योंकि मनुष्य योनि में ही प्राणी को बुद्धि और विवके प्राप्त होता है जिससे वह योग और भोग को अपने अपने हिसाब से प्राप्त करता रहता है।
चित्रगुप्त जी की चिंता को भांपते हुए देवर्षि नारद बोले ‘‘प्रभू में पृथ्वीलोक पर जाकर इसका पता लगाता हूँ।’’
‘‘हाँ हाँ देवर्षि, आप शीघ्र जाकर पता लगाइए। हमें इन आवेदनों का तुरंत निपटारा करना है अन्यथा लोक सेवा गारंटी अधिनियम के तहत हम पर कार्रवाई हो सकती है।’’
नारद जी तुरंत यात्रा पर निकल पड़े। अदृष्य होकर विशेष नगर पहुँच गए और दिव्य दृष्टि से देखने लगे। कड़कड़ती ठंड में लोग तंबुओं में रह रहे हैं। बच्चे और बूढ़े लगभग नंगे बदन ठिठुर रहे हैं। उनके पास ओढ़ने के लिए पर्याप्त कंबल और पहनने के लिए गर्म कपड़े नहीं हैं। खाने के लिए भरपेट भोजन भी नहीं है।
उनकी दिव्य दृष्टि घूमी, उन्होंने देखा कि वातानुकूलित तबेले में भैंसें आराम से बैठी पगुरा रहीं हैं। उनके सामने मध्यान्ह भोजन के लिए आया हुआ उत्तम क्वालिटी का पोषण आहार रखा हुआ है जिसे खाकर वे हृष्ट-पुष्ट हो रहीं हैं। सेवक लोग स्वयं हड्डियों का ढांचा बनकर भैंसों की सेवाकर उन्हें तंदुरुस्त बनाने में जुटे हैं।
तभी उनकी दिव्य दृष्टि ने देखा कि तबेले से भैंसें गायब हो गई हैं। तबेले में हड़कम्प मच गया है। महकमें के आला पुलिस अफसरों का वहाँ जमघट लग गया है। सभी के माथे पर चिंता की लकीरें खिंची हुई हैं। स्निफर डॉग स्क्वाड सूंघ सूंघ कर इधर उधर दौड़-भाग कर अपहरण कर्ताओं का पता लगा रहा है। पूरा प्रशासन सारा महत्वपूर्ण प्रशासनिक काम रोककर, भैंसों के अपहरण की गुत्थी सुलझाने में लगा हुआ है।
पुलिस महकमें ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देते हुए चैबीस घंटे में अपहरण का पर्दाफाश कर दिया और भैंसें तबेले में वापस पहुँच गईं।
तबेले का मालिक भैंसों के गले में लिपट कर कह रहा है ‘‘हमारी भैंसें विक्टोरिया से कम नहीं हैं।’’
दिव्य दृष्टि फुटपाथों, सड़कों पर घूमी। चारों तरफ भूख गरीबी अपना तांडव मचा रही है वहीं एक मेले में सरकार हीरोइनों को नचा रही है। तबेलों में जानवर पोषण आहार खा रहे हैं वहीं स्कूलों में सड़ा हुआ मध्यान्ह भोजन खाकर बच्चे बीमार पड़ रहे हैं।
अचानक देवर्षि ने देखा कि एक गरीब व्यक्ति आला पुलिस अफसर के पैरों को अपने आंसुओं से भिगोता हुआ गिड़गिड़ा रहा है ‘‘साब एक साल हो गया मेरी लड़की को गायब हुए। साब कुछ तो पता लगा दो कि मेरी लड़की को कौन ले गया है वह अब जिंदा है या मार दी गई है।’’
अफसर दहाड़ रहा है ‘‘तुम्हें तो कोई काम है नहीं। हम लोग फालतू बैठे हैं क्या? पता लगा रहे हैं। पता चलते ही तुम्हें बता देंगे।’’
फिर मन ही मन बड़बड़ा रहा है ‘खोजी कुत्ते भी सूंघ सूंघ कर हार गए उन्हें घर से गरीबी की बू के अलावा कोई बू नहीं मिली। वे चारों तरफ फैली गरीबी की बू में कन्फ्यूज्ड होकर रह गए। अब उस लड़की का पता कैसे लगाएं।’
पूरा प्रदेश तबेला बना हुआ है। अस्पतालों में डाक्टर पिट रहे हैं। दफ्तरों में अफसरों से झूमा-झटकी हो रही है। स्कूलों में मास्टरों से बदतमीजी हो रही है। महिलाओं और लड़कियों को सरेआम प्राकृतिक अवस्था में पहुँचाया जा रहा है। बंदूको की गोलियों से बच्चों के कंचों की तरह खेला जा रहा है। दबंग लोग आम आदमी को भेड़ों की तरह हाँक रहे हैं। पुलिस भेड़ों की जगह भेडि़यों की रक्षा में लगी है।
देवर्षि यह माहौल देखकर घबरा गए। तुरंत ही नारायण नारायण की जगह भैंस भैंस कहते हुए वापस चल दिए। वापसी में एक आत्मा जिसकी अभी अभी गोली मारकर हत्या उसके ही नेता ने कर दी थी नारद जी के साथ चिपक ली।
यमलोक में आवेदनों के ढेर में दबे हुए भगवान चित्रगुप्त और ब्रह्मा जी को मुष्किल से ढूंढ कर नारद जी कुछ बयान करते उससे पहले ही साथ आई आत्मा बोल पड़ी ‘‘बना दो बना दो, प्रभो! सारी जनता को किसी मंत्री की भैंसें बना दो ताकि उन्हें भी भोजन पानी और सुरक्षा तो मिल सके।’’

Saturday, March 3, 2012

sachhi janseva - satire

awarded in rashtradharm magazine (consolation prize)

बदहवास भागते हुए नारद जी (स्वतंत्र मीडिया कर्मी) ने बैकुण्ठधाम (संसद भवन) में प्रवेश किया ‘‘प्रभो, प्रभो, बचाइए मुझे।’’
नारद जी की यह हालत देखते हुए भगवान जी (प्रधानमंत्री) मंद मंद मुस्कराते हुए मौन ही रहे।
कातर स्वर में नारद ने अपनी बात जारी रखी ‘‘भगवन, मैं पृथ्वीलोक (जनता) के हाल-चाल जानने के लिए गया था कि अफसरों, दलालों और देवगणों (सांसदों) को न जाने कैसे आभास हो गया। बस प्रभो, वे सब मुझे पकड़ने दौड़ पड़े। चिल्ला रहे थे ‘‘पकड़ो, पकड़ो, ये देखो हमारी बातें टेप करता है। बड़ी ही मुश्किल से जान बचा कर आ पाया हूँ।’’ अपनी एंटिना नुमा चोटी पर हाथ फेरते हुए नारद ने राहत की सांस ली। भगवान जी के बोलने से पहले ही वहाँ उपस्थित देवगणों ने हंगामा मचा दिया, ‘‘ प्रभो, ये नारद हमारी गुप्त बातों को सार्वजनिक कर पृथ्वीलोकवासियों (जनता) को गुमराह कर रहा है। यह अपनी अल्पबुद्धि से हमारी गूढ़ बातों का विश्लेशण करता है और पृथ्वीलोक पर अनर्गल बातें फैलाकर हमारी छवि खराब कर रहा है।’’
‘‘अब आप ही बताइए प्रभो- हमारे एक देवगण ने चारा न पचाया होता तो उसे खाकर हमारी कामधेनु शुद्ध दूध देती और पृथ्वीलोक को शुद्ध दूध मिलने से हजारों तरह की बीमारियाँ हो जातीं। जिसे ये नारद ‘चारा घोटाला, चारा घोटाला’ कह रहा है। वैसे प्रभो, हमारे देवगण अपनी फैक्ट्रियों में निर्मित दूध सप्लाई कर पृथ्वीलोकवासियों का पूरा ख्याल रख रहे हैं और उनके मोटापे को बढ़ने नहीं दे रहे हैं।’’
‘‘प्रभो, हमारे देवगणों ने कुछ सरकारी देवगणों (अफसरों) के साथ मिलकर, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का ध्यान रखते हुए विदेश से कुछ ऐसे हथियार मंगा लिए जिससे हमारे ‘अहिंसा धर्म’ का पालन भी होता रहे, दुश्मन को बंदर घुड़की भी मिल जाए और उनकी जान-माल का नुकसान भी न हो। उस नेक कार्य को इसने ‘बोफोर्स घोटाला’ कहकर पृथ्वीलोक को हमारे विरूद्ध भड़काने का षड़यंत्र रच डाला।’’
‘‘प्रभो, आप ही विचार कीजिए- हमारे देवगण ने खदानों से अर्जित कुछ हजार करोड़ अपने विदेशी खातों में जमाकर दो नेक काम किए। पहला विदेश की अर्थव्यवस्था सुधार ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का ध्यान रखते हुए किया। दूसरा अर्थशास्त्र के ‘डिमांड एण्ड सप्लाई’ के सिद्धांत का पालन कर, नोटों की सप्लाई कम कर, मुद्रास्फीति घटाने का काम किया, जिससे मंहगाई वृद्धि रुकी। अन्यथा पृथ्वीलोक मंहगाई डायन के शिकंजे में ही दम तोड़ देता।’’
‘‘प्रभो, आप एक और मुद्दा देखिए- हमारे एक सरकारी देवगण ने कुछ हजार एकड़ जमीन अपने आधिपत्य में लेकर जनता के बीच जमीन की मारामारी रोककर नेक काम किया है जिसे इसने ‘जमीन घोटाला’ कहकर हमें बदनाम किया है।’’
‘‘प्रभो, इसकी नादानी का एक और उदाहरण देखिए- हमने कॉमनवेल्थ गेम खिलाकर लाख-करोड़ की वेल्थ कॉमन कर ली तो इसे यह ‘कॉमनवेल्थगेम घोटाला’ कहकर दुष्प्रचारित कर रहा है। प्रभो, आप ही बताइए मात्र तेरह दिनों के खेल के लिए, मज़बूत स्टेडियम और मज़बूत सड़कों की क्या जरूरत है? क्या मज़बूत स्टेडियम में हमारे खिलाडि़यों के ज्यादा चोटें नही लगतीं?’’
‘‘प्रभो, हमारे देवगणों को क्या ये भी अधिकार नहीं है कि वे आदर्श सोसाइटी में अपने लिए आवास ले सकें। आखिर हम हैं तो जनसेवक और हमने सेवकों के आवास ले लिए तो इसने ‘आदर्श हाउसिंग घोटाला’ कहकर हमारी छवि खराब की है।’’
‘‘और प्रभो, अब तो हद हो गई है- हमारी एक अप्सरा ने अपने कार्य-कौशल से कुछ सौदे तय कराकर अपनी एवं देवलोक की भलाई की तथा पृथ्वीलोक को कुछ सस्ते में स्पेक्ट्रम दिला दिए जिससे फायदा पृथ्वी लोकवासियों को ही हुआ है। आज गरीब से गरीब के पास दो-दो, तीन-तीन मोबाइल हैं और वे कम रेट पर आपस में सुख-दुख बांट रहे हैं। इससे इसको जलन हो रही है। यह चाहता है कि संचार प्रणाली पर सिर्फ इसके एंटिना का ही आधिपत्य रहे। प्रभो, हमें इसका एंटिना काटना है।’’
‘‘प्रभो, आप ठंडे दिमाग से रिकार्ड देखकर निर्णय कीजिए कि हम कितनी मेहनत से काम कर रहे हैं। जनसेवा में कुछ करोड़ के हेरफेर से शुरू कर हमने लाखों हजार करोड़ की हेरफेर में महारत पा ली है। प्रभो, अब तो दैत्यगण (अपराधी) भी हमारी दोस्ती के लिए लालायित हो रहे हैं। वे भी प्रगति पथ में शामिल होना चाहते हैं। पर ये नारद, ‘‘पकड़ो इसे और निकाल फेंको।’’
हंगामा बढ़ते देख भगवान अपनी मुस्कराहट को छोड़कर कुछ कहने को तत्पर हुए कि जगत जननी, सर्वशक्तिमान, शक्तिस्वरूपा का इशारा पाकर पुनः मनमोहिनी के साथ मौन होकर बैठ गए।

Tuesday, October 25, 2011

happy diwali

dharti k kan-kan mein bikhre,
jagmag jyoti diwali ki,
jan jan k ur-dwar pe pahunche,
shubhkamna diwali ki.shubh diwali