समीक्षा
उपन्यास - तेरा नाम इश्क़
उपन्यासकार -अजय सिंह राणा
प्रकाशक - सृष्टि प्रकाशन चंडीगढ़
इश्क के रेशमी फाहों को
शब्दों में बयां करना मुश्किल है,
ये तो अहसासों का समंदर है
तन्हाई में डूबना और उतराना है।
उपन्यास के समर्पण के साथ ही लिखी दो लाइनों "रूह में उतर कर तो देखिए, इन जिस्मों का क्या, इक दिन खाक हो जाएगा।" के आगाज से ही "तेरा नाम इश्क़" की गहराई का अंदाजे बयां हो जाता है।
नापाक जिस्मों से होकर पाक रूह में समा जाता है इश्क़। कब होता है, किससे से होता है और क्यों होता है इश्क़? किसी को कुछ पता नहीं पर जब भी होता है झूर के होता है कि तन-मन की सुध-बुध भुला देता है। कभी हँसा देता है कभी रुला देता है, अद्भुत है इसका पैगाम - मेरा नाम इश्क़ या तेरा नाम इश्क़।
"उसने कहा था" के इश्क़ के कोमल अहसासों के बाद "तेरा नाम इश्क़" ने फिर से डुबा दिया अहसासों के समंदर में कि गुजरने लगे हम भी भूले-बिसरे इश्क़ के बवंडर में।
अजय सिंह राणा मानवीय संवेदनाओं और मनोविज्ञान के कुशल चितेरे हैं। मानवीय मनोविज्ञान की गहराइयों में उतर कर लिखी गई रचना तक पहुँचने के लिए उसी गहराई तक उतरना पड़ता है। पुस्तक में छिपे मर्म को पकड़ने के लिए डूबकर पढ़ना पड़ता है।
मानव जीवन का सबसे गूढ़ तत्व है प्रेम। ढाई अक्षर के प्रेम या इश्क की गहनता जानना उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल है ढाई-तीन इंच के हृदय की गहराई नापना।
हिंदी के प्रेम में भी ढाई अक्षर और उर्दू के इश्क़ में भी ढाई अक्षर क्योंकि ईश्वर ने नहीं बाँटा है इंसानों को। कैद नहीं हो सकता है प्रेम/इश्क़ सीमाओं के दायरे में।
धर्मों के दायरे नहीं रोक पाए स्नेहा और साहिल उर्फ वसीम तथा अरमान और सारिका के इश्क़ को। जातियों, मजहबों के बीच दीवारें खींची जा सकती हैं किंतु इश्क़ के फाहों को जातीय व मजहबी दायरों में कैद करना नामुमकिन है।
इश्क़, इबादत और इंतजार को अपने शब्दों में गूँथने से पहले राणा जी ने कड़ी मेहनत की है। पात्रों के बारे में गहन अनुसंधान, खोजबीन और जाँच पड़ताल के बाद सृजन की लंबी वेदना से गुजरे हैं, तब कहीं नायाब "तेरा नाम इश्क़" का जन्म हुआ है। कथ्य नया नहीं है पर उसको भाषा और शिल्प में इस खूबसूरती से पिरोया है कि एक-एक रेशा यानी वाक्यांश अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हो रहा है।
स्नेहा व साहिल के इश्क़, इबादत और इंतजार की यात्रा में मीरपुर गाँव के आतंकियों के खौफनाक मंजर के बाद तबाह खंडहरों में पसरी मौत का रुदन है कि चौकीदार कहता है, "ये कोई सैर सपाटे की जगह नहीं है, बस एक कब्रिस्तान है। सैकड़ों लाशें गिरी थीं यहाँ... गैर मजहबी लोगों की।"
श्रीनगर व पूरे कश्मीर की खूबसूरती पर आतंकी ग्रहण से जन्मी नफरतों के मानसिक बारूद का ढेर है कि ड्राइवर भी पूछता है कि "आप दोनों इंडिया से आए हो।" पाकिस्तान जिंदाबाद, गो बैक इंडिया के स्लोगनों ने युवाओं के हाथों में रोजगार की जगह मजहबी पत्थर पकड़ा दिए हैं। नफरतों के मंजर की इतनी गहरी घुसपैठ करा दी है कि अबोध बालमन भी स्कूल बंद होने का कारण इंडिया वालों को ही मानता है।
इश्क़ की दास्तान के साथ-साथ उपन्यास ने ज्वलंत मुद्दों आतंकवाद और मजहबी दंगों के पीछे छिपी स्वार्थों की राजनीति का पुरजोर विरोध किया है।
साहिल की दोस्ती को जिलाए रखने के लिए वसीम ने चंडीगढ़ में स्नेहा को अपना परिचय साहिल के रूप में ही देता है। जस्सी भी अपनी दोस्ती के कारण साहिल के बारे में पता चलते ही अपनी शादी से एक दिन पहले आशीष को बताने के लिए मुंबई जाता है।
काश! इंसानी दिलों में ये दोस्तियां बन जातीं तो यूँ दुश्मनी की दरारें समाज को नहीं बाँट पातीं।
वो जवानी ही क्या जिसमें इश्क़ की ज्वाला न धधके। बहुत खूबसूरती से राणा जी ने दिलों की इस मीठी-मीठी हूक को अपने शब्दों में पिरोया है। सच है इश्क़ इंसानों के बीच की दूरियां मिटाता है। सच्चा इश्क़ जिस्मों से परे जाकर रूह में समा जाता है। इस प्लेटॉनिक इश्क़ में इश्क़ इबादत बन जाता है जहाँ मिलन के माधुर्य का सुख है वहीं इंतजार की वेदना है।
स्नेहा, जस्सी, साहिल, आलिया और आशीष के अपने-अपने एकतरफा प्यार की वेदना को उपन्यास में बखूबी दिखाया गया है। अपनी तन्हाइयों में अपने ही वजूद के साथ वार्तालाप कराना बहुत अच्छा प्रयोग है।
"स्नेहा उस घुड़सवार को हैरानी से देख रही थी। कौन हो तुम?"
"तुम्हारे दिल में ही तो रहता हूँ।"
"मैं तो सदियों से ही हूँ... तुम सब के दिलों में। मैं वह भी हूँ जिसकी तुम्हें तलाश है और जो तुम्हारे जहन में है।"
आजकल जहाँ अनेक एन जी ओ केवल कागजों पर ही चल रहे हैं वहीं जीत सिंह जैसे लोग नफरतों के दलदल में फँसे लोगों की मदद के लिए यथार्थ के धरातल पर खामोशी से काम कर रहे हैं।
सेना के बेस हॉस्पिटल में घायल जवान अपना फोटो खींचने के लिए मना करता है, "प्लीज तस्वीर मत लीजिए। घरवाले बेवजह परेशान होंगे।"
"मत खींचो तस्वीर... यदि उन लोगों को पता चल गया तो वे मेरे घरवालों को मार डालेंगे।"
यहाँ पर भी मीडिया की संवेदनहीनता बहुत दुखद है।
आतंक किसी समस्या का समाधान नहीं है। इसमें आम आदमी दोहरी मार खा रहा है।
आशीष का स्नेहा के प्रति अपने एकतरफा प्यार को तिलांजली देकर, दोस्ती में किए गए वादे अनुसार स्नेहा को उसके प्रेम साहिल उर्फ वसीम से मिलवाना उपन्यास का सबसे प्रबल पक्ष है क्योंकि सच्चा इश्क़ जिस्मानी न होकर रूह की इबादत है।
उपन्यास में कथानकों का प्रवाह बहुत सुगठित है। कहीं भी ऐसा नहीं लगता है कि उसे जबरदस्ती लिखा गया है। भाषा सहज, सरल और प्रभावशाली है। पूरे उपन्यास में इश्क़ में मिलन की संभावित असफलता को फिल्मी गाने, "लग जा गले..., कि इस जनम में मुलाकात हो न हो।" के द्वारा बखूबी वर्णित किया गया है।
सृष्टि प्रकाशन ने बढ़िया मुद्रण किया है। उनको भी साधुवाद और अपेक्षा कि पाठकों को अच्छा साहित्य उपलब्ध कराने में वे अपनी व्यावसायिकता को आड़े नहीं आने देंगे।
भ्रातृवत अनुज अजय सिंह राणा को इश्क़, इबादत और इंतजार के बारीक मनोविज्ञान और सामाजिक विघटन के दर्द को अपने काव्यात्मक गद्य में "तेरा नाम इश्क़" के रूप में पाठकों के सामने लाने के लिए बहुत बहुत साधुवाद।
अंत में यही कहूँगा कि
इंसानों में इश्क़ की इबादत तो पनपने दो,
नफरतों के मंजर अपने-आप सिमट जाएंगे।
मधुर कुलश्रेष्ठ
नीड़, गली नं 1
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